IIT में दाखिला के लिए आयोजित होने वाली जेईई एडवांस्ड को देश की सबसे कठिन परीक्षाओं में शुमार किया जाता है, लेकिन प्रत्येक साल जेईई एडवांस्ड में टाॅप करने के बाद भी कई छात्र IIT में दाखिला नहीं लेते हैं. बल्कि वह इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (IISc) बेंगलुरु में दाखिला लेने का विकल्प चुनते हैं. इस साल भी जेईई एडवांस्ड के टॉपरों में शुमार उज्जवल केसरी ने IIT के बजाय IISc में दाखिला का विकल्प चुना है. आइए जानते हैं कि आखिर IISc में ऐसा क्या खास है, जिसे कभी टाटा ने जमीन देकर शुरू किया था. इसकी शुरुआत में 24 छात्रों के साथ हुई थी और आज IISc दुनिया के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में शुमार है.
IISc बनने की कहानी
जगशेदजी नुसरवानजी टाटा ने 1890 के दशक में अपनी निजी संपत्ति का उपयोग करके भारत में एक विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय स्थापित करने का फैसला किया. उनके इस फैसले का समर्थन मैसूर के राजा ने किया और रीजेंट क्वीन महारानी केम्पनंजम्मानी वाणी और उनके नाबालिग बेटे कृष्णराज वाडियार ने बैंगलोर में 371 एकड़ और 16 गुंटा जमीन और पैसा टाटा को उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए दिया.
इस बीच साल 1904 की गर्मियों में जमदेशजी टाटा की मौत हो गई, लेकिन तमाम बाधाओं को पार करते हुए 27 मई 1909 को बैंगलोर में IISc की स्थापना की गई और IISc के पहले निदेशक ब्रिटिश केमिस्ट्री साइंटिस्ट मॉरिस ट्रैवर्स बने. साल 1911 में IISc ने छात्रों को दाखिला देना शुरू किया तो उस समय 24 छात्रों को इसमें दाखिला दिया गया और केमिस्ट्री और इलेक्ट्रिक टेक्नोलॉजी ब्रांच शुरू की गई.
5 साल में ही 6 फैक्ट्रियां स्थापित की गई
शुरुआती वर्ष में मैसूर के दीवान सर एम विश्वेश्वरैया IISc कांउसिल में सदस्य नामित हुए, जिन्होंने IISc के रिसर्चर से देश के तत्काल महत्व पर आधारित रिसर्चर करने का आग्रह किया. नतीजतन IISc ने अपने शुरुआती पांच साल में अपनी रिसर्च से देश में 6 फैक्ट्रिया स्थापित की, जिसमें मैसूर में साबून और चंदन के तेल की फैक्ट्रिया अहम हैं.
सर सीवी रमन पहले भारतीय निदेशक
दुनिया के प्रसिद्ध साइंटिस्ट और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीवी रमन IISc के पहले भारतीय निदेशक बने थे. असल मेंसर सीवी रमन ने IISc में फिजिक्स और बायोकेमिस्ट्री ब्रांच स्थापित की. जिसके बाद सर सीवी रमन साल 1933 में IISc के पहले भारतीय निदेशक नियुक्त किए गए.
दूसरे विश्व युद्ध में IISc की भूमिका
दूसरे विश्व युद्ध में IISc की भूमिका अहम रही है. युद्ध के दौरान IISc ने हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड के साथ मिलकरकर्मियों को प्रशिक्षित करने, सैन्य और औद्योगिक वस्तुओं का निर्माण और ब्रिटिश और अमेरिकी युद्ध विमानों की मरम्मत और रखरखाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस समय पर IISc में इंजीनियरिंग रिसर्च शुरू हुई. नतीजतन एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग, मैटल मैकेनिकल इंजीनियरिंग जैसे नए विभाग शुरु हुए.
सतीश धवन ने किया IISc का विस्तार
देश के प्रमुख एयरोस्पेस इंजीनियर और इसरों के निदेशक रहे सतीश धवन के नेतृत्व में IISc ने अपना विस्तार किया, जिसके तहत IISc का निदेशक रहते हुस सतीश धवन ने 70 और 80 के दशक मैटिरियल साइंस, कंप्यूटर साइंस, ऑटोमेशन,मॉलेक्युलर बायोफिजिक्स जैसे विषयों पर रिसर्च शुरू की. साथ ही इसी दौरान IISc में इकोलॉजी, एटमॉस्फियर और ओसियन साइंस के सेंटर स्थापित किए गए.21वींं सदी में IISc ने ब्रेन रिसर्च, नैनाे साइंस और इंजीनियरिंग जैसे कई विषयों पर ग्रेजुएशन कोर्स शुरू करने के साथ ही सेंटर स्थापित किए हैं.
देश के बड़े साइंटिस्टों का IISc से संबंध
IISc काे भारत की साइंटिस्ट फैक्ट्री माना जाता है. IISc ने देश को कई साइंटिस्ट दिए हैं. IISc के छात्रों और शिक्षकों की बातें करें तो इसमें भारत के परमाणु कार्यक्रम के संस्थापक होमी जे भाभा, भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के संस्थापक विक्रम साराभाई, मौसम विज्ञानी अन्ना मणि जैसे नाम शामिल हैं.
IISc की ग्लोबल रैंकिंग क्या है
IISc की ग्लोबली रैंकिंग की बात करें तो टाईम्स हायर एजुकेशन की एशिया रैंकिंग 2025 में संस्थान को देश का शीर्ष संस्थान माना था, जिसमें 38वीं रैंकिंग एशिया स्तर पर मिली थी. वहीं क्यूएस रैंकिंग में IISc की रैंकिंग ग्लोबली 211वीं थी. यहीं वजह है कि भारत के टॉपर्स की पसंद IISc है.
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