भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) लखनऊ और कोलकाता, तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) दिल्ली के प्रोफेसरों के एक अध्ययन में सामने आया है कि प्रबंधन शिक्षा जगत में रैंकिंग की अंधी दौड़ गलत शैक्षणिक तरीकों से बढ़ावा दे रही है और पूंजीवादी सोच के विस्तार में सहायक बन रही है.
इस रिसर्च में बताया गया है कि कैसे इस प्रभाव का सबसे अधिक असर ‘ग्लोबल साउथ’ यानी विकासशील देशों में देखा जा रहा है.
मैनेंजमेंट लर्निंग नामक पत्रिका में प्रकाशित रिसर्च में सामने आया है कि वैश्विक स्तर पर बेहतरीन बनने की दौड़ ही मैनेजमेंट एजुकेशन का मुख्य आधार बन गई है, लेकिन यह होड़ समाज के लिए उपयोगी और जरूरी ज्ञान के निर्माण को नुकसान पहुंचा रही है.
रैकिंग के पीछे भागना ठीक नहीं
IIM लखनऊ में बिजनेस सस्टेनेबिलिटी के सहायक प्रोफेसर प्रियांशु गुप्ता ने कहा कि भारतीय प्रबंधन संस्थान एक ओर तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘भारतीय पहचान’ बनाने की कोशिश करते हैं, वहीं दूसरी ओर वैश्विक मान्यता पाने के लिए रैंकिंग के पीछे भागते हैं। इस कारण कई शैक्षणिक समस्याएं सामने आ रही हैं. शोध में बताया गया है कि रैंकिंग प्रणाली एक बनावटी प्रतिस्पर्धा खड़ी करती है, जिससे केवल कुछ चुनिंदा संस्थानों को ही ध्यान में रखा जाता है, जबकि देश के हजारों अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों की मजबूत बुनियादी जरूरतों को नज़रअंदाज कर दिया जाता है. गुप्ता ने यह भी बताया कि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में शोध प्रकाशित कराने के दबाव की वजह से गलत और अनैतिक शोध गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है. इसके साथ ही भारतीय शोधकर्ताओं में यह प्रवृत्ति बढ़ रही है कि वे अपने स्थानीय मुद्दों की जगह पश्चिमी मॉडल की नकल करने लगते हैं.
पीछे छूट रहा जरूरी सवाल
प्रोफेसर प्रियांशु गुप्ता ने भाषा से बातचीत में कहा कि अकादमिक शोध मुख्य रूप से स्वैच्छिक काम पर आधारित होता है, जिसमें शोधकर्ता बड़े-बड़े कॉर्पोरेट प्रकाशकों के लिए बिना किसी पारिश्रमिक के लेखन, समीक्षा और संपादन जैसे काम करते हैं. इसके बावजूद कई संकाय सदस्य नौकरी की असुरक्षा से जूझते रहते हैं. गुप्ता ने बताया कि यह अध्ययन तब किया गया, जब शिक्षकों ने आपसी बातचीत में देखा कि अब बातचीत का विषय यह नहीं रहा कि कौन क्या रिसर्च कर रहा है, बल्कि यह बन गया है कि कौन-सा रिसर्च किस रैंक की पत्रिका में छपा है. इससे यह ज़रूरी सवाल पीछे छूट जाता है कि क्या यह काम समाज के लिए उपयोगी है, और उसकी जगह यह सवाल प्रमुख हो जाता है कि क्या यह काम किसी शीर्ष अंतरराष्ट्रीय जर्नल में छप सकता है.