मिल-जुलकर ही निभा पाएंगे सबको शिक्षा देने का वायदा

Photo of author
यह आजादी से जुड़ा महत्वपूर्ण वर्ष है, और आधुनिक भारत में ऐसी घटनाओं, लोगों, प्रवृत्तियों और विचारों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने स्कूली शिक्षा को आकार दिया है, फिर चाहे वह बेहतर हो या बदतर। शुरुआत मैं 19वीं सदी के मध्य से करना चाहूंगा, जब सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिबा ने पुणे में लड़कियों के लिए तीन स्कूल शुरू किए। तमाम विरोधों के बावजूद उनके साहस ने बताया कि शिक्षा महज साक्षरता और पाठ्य-पुस्तकों तक सिमटी नहीं है, बल्कि सामाजिक सुधार की दिशा में शायद इससे बड़ी कोई ताकत नहीं है। आज पूरे देश में जिन मिशनरी स्कूलों का जाल फैला है, उनकी शुरुआत 19वीं सदी के अंत में हुई है। पहले ये स्कूल अमूमन दूसरों की तुलना में बेहतर संसाधन वाले होते थे और अमीर व गरीब, दोनों को समान रूप से लुभाते थे। पर जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, इन स्कूलों का विस्तार तो हुआ ही, लेकिन माता-पिता का शोषण करने वाले नकली कॉन्वेंट स्कूल भी खुलते गए।

भारतीय शिक्षा को चार लोगों के विचारों ने गहरे तक प्रभावित किया- शिक्षा के लक्ष्य के रूप में मानवतावाद, सार्वभौमिकता व आत्म-साक्षात्कार संबंधी रवींद्रनाथ टैगोर के विचार; आत्म-निर्भरता के लिए शिक्षा का व्यावहारिक ज्ञान संबंधी महात्मा गांधी के विचार; वास्तविक लोकतंत्र की नींव के रूप में शिक्षा संबंधी भीमराव आंबेडकर की सोच; और आत्म-मुक्ति, समानता और समग्रता पर केंद्रित शिक्षा संबंधी जे कृष्णमूर्ति की धारणा। शैक्षणिक सोच को बढ़ावा देने के लिए 1961 में एनसीईआरटी की स्थापना की गई, जिसके बाद राज्यों में भी इस तरह के संस्थान खुले। 1963 में केंद्रीय विद्यालयों की शुरुआत ने यह बखूबी बताया कि सार्वजनिक व्यवस्था के तहत अच्छी शिक्षा दी जा सकती है। 1966 में कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसने 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जन्म दिया, जो अपनी तरह की पहली व्यापक नीति थी। 1960 के दशक की शुरुआत में तमिलनाडु सरकार ने स्कूलों में मध्याह्न भोजन योजना की शुरुआत की। 1981-82 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन ने इसे सांस्थानिक रूप दिया और व्यापक बनाया। अभी जो देश भर में मिड-डे मील योजना चल रही है, उसकी बुनियाद यही योजना थी। इसी तरह, 1962 में केरल शास्त्र साहित्य परिषद की शुरुआत हुई, जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए आम नागरिकों की एक गंभीर कोशिश थी।
वर्ष 1962 में गोरखपुर में पहला सरस्वती शिशु मंदिर खोला गया। इन स्कूलों की संख्या बढ़ने पर उनके विकास में समन्वय बनाने के लिए 1977 में विद्या भारती की स्थापना की गई। हालांकि, कम फीस वाले निजी स्कूल भी काफी ज्यादा खुले, पर उनमें से ज्यादातर ने ‘कॉन्वेंट व अच्छी अंग्रेजी शिक्षा’ का सपना बेचा, जबकि हकीकत में वे खराब गुणवत्ता की शिक्षा देते रहे। अभिजात वर्ग के निजी स्कूल भी 1991 के बाद भारत में मध्यवर्ग के विकास के साथ विकसित हुए। माता-पिता और छात्रों की इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में दाखिले की एकसूत्रीय कोशिश ने गणित व विज्ञान के अलावा अन्य सभी विषयों को कमतर बना दिया। इसने न सिर्फ भारत में ट्यूशन उद्योग को बढ़ावा दिया और स्कूलों में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को हतोत्साहित किया, बल्कि प्रवेश परीक्षाओं को महत्वपूर्ण बना दिया।
साल 1986 में दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति आई, जिसके बाद 2020 में तीसरी। 1993 में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम की शुरुआत हुई, जिसका मकसद 272 जिलों में प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाना था। 2001 में शुरू सर्वशिक्षा अभियान ने पूरे देश में स्कूली शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव किया।
साल 2009 के शिक्षा का अधिकार अधिनियम ने छह से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया। अब अगले 25 साल में भारत 100 वर्ष का हो जाएगा। उम्मीद है, हम जवाहरलाल नेहरू के शिक्षा के वायदा को पूरा कर सकेंगे- पूरी तरह से बेशक शिक्षा न दी जा सके, मगर काफी हद तक मिले। अगर ऐसा होता है, तो हम राष्ट्रीयता की भावना को भी काफी हद तक आत्मसात कर सकेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)